राजनीतिक संवाददाता द्वारा
रांची, झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन के दलों में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। बेशक कांग्रेस खुलकर कोई बयानबाजी नहीं कर रही है, लेकिन अंदरखाने उनमें मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के फैसलों को लेकर काफी अकुलाहट है। कांग्रेस में प्रदेश स्तर के नेता से लेकर निचले स्तर तक के कार्यकर्ता इसे अच्छे से महसूस कर रहे हैं कि गठबंधन सरकार की अगुवा झामुमो सोची-समझी रणनीति के तहत उनके वोट बैंक में अपनी पैठ बढ़ा रही है और वह कोई कड़ा प्रतिरोध नहीं कर पा रहे हैं। कांग्रेस हाईकमान भी चुप्पी साधे हुए है। संभव है कि वह अभी झारखंड में अपनी सहयोगी झामुमो से किसी तरह के टकराव से बचना चाहती हो, लेकिन लंबे समय तक अगर आगे भी नेतृत्व यूं ही चुप्पी साधे रहता है तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है।
हाल के दिनों में कांग्रेस ने हेमंत सरकार पर दबाव बनाना आरंभ किया है, लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकार यह स्वीकार कर रहे हैं कि उनके एजेंडे पर काम नहीं हो रहा है। गठबंधन की सरकार होने के बावजूद झामुमो अपने एजेंडे पर ज्यादा मजबूती से डटा है। इसका अहसास कांग्रेस को है और इससे उसका परंपरागत आधार भी छिटक सकता है।
एक बड़ा मसला राज्य सरकार की नौकरियों में भाषा को लेकर जारी विवाद है। पहले सरकार ने राज्य की क्षेत्रीय भाषाओं को इसके लिए अनिवार्य किया, लेकिन उन भाषाओं को इससे अलग रखा जो बिहार से सटे राज्य के कई हिस्सों में काफी लोकप्रिय है। इन भाषाओं में भोजपुरी, मगही, अंगिका और मैथिली शामिल हैं। कांग्रेस इन भाषाओं को शामिल कराने के लिए सरकार पर लगातार दबाव बना रही है।
चौतरफा हंगामा के बाद सरकार ने जिला स्तर पर तीन भाषाओं को मान्यता दी भी है, लेकिन इससे भी कांग्रेस असहज है, क्योंकि मैथिली को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। इस फैसले का साइड इफेक्ट यह भी है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा इसका खुलकर विरोध ही नहीं कर रहा, बल्कि उससे जुड़े संगठनों ने आंदोलन की चेतावनी दे दी है।
उधर, हेमंत सरकार के कद्दावर मंत्री झामुमो के ही जगरनाथ महतो ने मुख्यमंत्री से कहा है कि मगही और भोजपुरी झारखंड की भाषा नहीं है। इसे बोकारो और धनबाद की स्थानीय भाषाओं की सूची से हटाएं। दरअसल, झारखंड मुक्ति मोर्चा की अपने समर्थकों के बीच लोकप्रियता का एक बड़ा पैमाना बिहार का विरोध है। जब आरंभ में भोजपुरी को शामिल करने की मांग उठी थी तो मुख्यमंत्री ने खुद इन भाषाओं और उसे बोलने वालों का राज्य गठन के समय प्रभुत्व बताते हुए कड़ी टिप्पणी की थी। कांग्रेस ने इस बात के लिए दबाव बनाया है कि चारों भाषाओं को राज्य स्तर पर मान्यता दी जाए, क्योंकि जिला स्तर पर केवल तृतीय और चतुर्थी श्रेणी की नियुक्तियां होंगी। ऐसे में यह भाषा बोलने वाले लाखों युवाओं को राज्य स्तर पर होने वाली नियुक्तियों में लाभ नहीं मिल पाएगा, जिससे असंतोष बढ़ेगा। इसका उन्हें राजनीतिक नुकसान होने की भी उम्मीद है।
कांग्रेस के कई विधायक भाषाओं को हटाए जाने से नाराज हैं और नियुक्ति प्रक्रिया शुरू होने के पूर्व इसका निदान चाहते हैं। स्थानीय और जनजातीय भाषाओं को प्राथमिकता देने के क्रम में राज्यस्तरीय परीक्षाओं के लिए कई भाषाओं की अनदेखी होने का आरोप कांग्रेस की विधायक दीपिका पांडेय सिंह, अंबा प्रसाद और पूर्णिमा नीरज सिंह लगा चुके हैं। अब देखना होगा कि सरकार इस समस्या का समाधान कैसे निकालती है। इससे सत्तारूढ़ घटक दलों के अंदर भी इस मुद्दे पर बाहरी-भीतरी जैसी भावनाएं पनप सकती हैं। कांग्रेस के पास सरकार को उलाहना देने के लिए कई और मुद्दे हैं।
2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने न्याय योजना आरंभ करने का वादा किया था। इसके तहत चिन्हित गरीबों को सालाना 72 हजार रुपये देने की योजना थी। यह योजना आगे ही नहीं बढ़ी। कृषि ऋण माफ करने की कांग्रेस की योजना पर भी धीमी गति से काम चल रहा है। कांग्रेस की नजर हेमंत सरकार में खाली पड़े मंत्री के एक पद पर भी है, जिसे झामुमो ने नकार दिया है। जल्द ही खाली पड़े बोर्ड, निगम और आयोग को लेकर भी गठबंधन में खींचतान आरंभ होने की उम्मीद है। ये मसले गठबंधन के समक्ष चुनौती बनकर उभरे हैं जो आने वाले दिनों में झारखंड की राजनीतिक दिशा तय करने के साथ-साथ सरकार का भविष्य भी तय करेंगे।